सिद्धि विनायक नमो नम:
हर व्यक्ति अपने जीवन में शुभ-लाभ पाने के लिए तेजी से भाग रहा है। ऎसे में गणपति हमें प्रेरित करते हैं बुद्धि और विद्या से एकाग्रचित्त होकर पूरे विवेक के साथ अपना काम संपूर्ण करने के लिए।
श्रीगणेश चतुर्थी अर्थात् आनंद मोदक बांटते विघ्नराज एकदंत भगवान गणपति के जन्म-प्राकटय का उत्सव। शुभ-लाभ और ऋद्धि-सिद्धि की देवशक्तिगणपति के धरती पर प्रकट होने का पवित्र दिन सामने है। इस दिन यह कहना प्रासंगिक होगा कि गणेश की आज हमें सर्वाधिक जरूरत है। गणेश पुराण के अनुसार गणपति अपनी छोटी-सी उम्र में ही समस्त देव-गणों के अधिपति इसी कारण बन गए क्योंकि वे किसी भी कार्य की सिद्धि बल से करने की अपेक्षा बुद्धि से करते हैं। बुद्धि के तत्काल और सही उपयोग के कारण ही उन्होंने पिता महादेव से वरदान लेकर सभी देवताओं से पहले पूजा का अधिकार पा लिया। उनका वाहन मूषक भी इसीलिए है कि वह कभी भी चुपचाप न बैठकर सतत किसी न किसी कार्य को सिद्ध करने में ही लगा रहता है। गणपति अपनी लीलाओं से बुद्धि चातुर्य की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे सारी मानव जाति को तनाव तथा अवसाद से दूर रहकर सदा प्रसन्न-आनंदित रहने की प्रेरणा देते हैं।
हाथी का मुख धारण करने में भी यही आश्य स्पष्ट है कि हाथी सभी प्राणियों में सर्वाधिक सूक्ष्म दृष्टिसंपन्न होते हैं। गणपति खासकर बुद्धि के देवता हैं। विद्या की अधिष्ठात्री माता शारदा की कृपा भी उसी को प्राप्त होती है, जिसे गणपति अपनी कृपा से बुद्धि प्रदान करते हैं। शास्त्रों में गणपति को "प्रसन्नवदन" कहा गया है अर्थात वे गंभीर परिस्थिति में भी समस्या के प्रति सावधान तो रहते हैं पर उस विपत्ति से मानसिक अवसाद में नहीं आकर यह समझाते हैं कि जो अवसाद से दूर रहता है, उसी के घर में ऋद्धि-सिद्धि तथा समृद्धि-प्रसिद्धि का निवास हो सकता है। गणपति संदेश देते हैं निर्बल की सहायता और रक्षा करने का । वे सहस्रों भक्तों की रक्षा कर समस्त बलवानों को निर्घन की सहायता करने के लिए मार्ग दिखाते हैं। वे सत्य की रक्षार्थ महाबली परशुराम से भी टकराते हैं और पराजित होना भी स्वीकार नहीं करते। वे शीघ्र लेखन से महर्षि वेदव्यास का बोला हुआ महाभारत लिखते हैं। लिखने-पढ़ने-बोलने की कला से गणपति मानव मात्र को बाहरी पढ़ाई की अपेक्षा भीतरी अध्ययन करने की सीख भी देते हैं।
प्रथम पूज्य गणपति
किसी भी कार्य की निर्विघ्न समाप्ति हेतु विघ्नविनाशक भगवान गणपति की ही सबसे पहले पूजा की जाती है। शास्त्र कहते हैं कि विद्यारंभ अर्थात पढ़ाई शुरू करने से पहले, विवाहादि मांगलिक कार्यो के प्रारंभ में, किसी भी नए भवन या व्यापारिक प्रतिष्ठान में सर्वप्रथम प्रवेश करते हुए या किसी भी शुभ कार्य के लिए निकलने से पहले गणेश का स्मरण करके ही निकलना चाहिए। यहां तक कि भयंकर संकट में फं स जाने पर भी कष्ट के शीघ्र निवारण के लिए "श्रीगणपति अथर्वशीर्ष" का पाठ करना चाहिए। गणपति एकमात्र ऎसे देवता हैं, जो हर किसी को बड़ी ही सहजता से सुलभ हैं। किसी शुभ कार्य के आरंभ में यदि गणपति की मूर्ति उपलब्ध न हो तो शुद्ध मिट्टी या सुपारी से बने गणेशजी में ही भगवान् गणपति का पूजन हो जाता है। एक प्रामाणिक शोध बताता है कि आज सभी धर्मो और जातियों में भगवान गणेश का समान रूप से पूजन-अर्चन हो रहा है। सर्वाधिक आकृ तियों और चित्रशैली में गणपति के चित्र ही पूरे संसार में बने हैं।
मंगल के देवता
गणपति महादेवता हैं। यजुर्वेद में लिखा है कि वे इस सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश दोनों में ही प्रधान कारण है। वे गणपति ही वसंत में हैं और पतझड़ में भी। वे समस्त विघ्नों के नाशक हैं और सारे अरिष्टों-कष्टों के जनक भी। धर्मशास्त्रों और पुराणों में वे मंगल-देवता हैं। सारी विपत्तियों और विघ्नों को हरने वाले वे ऎसे महामांगलिक देवता हैं, जो सारी बाधाओं को दूर करते हैं।
गजवदन बने कैसे?
गणेश जन्म की इतिहास-पुराणों में अनेक कथाएं हैं। वेद-पुराणों में गणपति को हिमालय की कन्या माता पार्वती का पुत्र कहा गया है। यह कथा बताती है कि एक बार देवाधिदेव महादेव नदी में स्नान करने पधारे। महादेव के चले जाने पर माता पार्वती ने भी स्नान करना आरंभ किया और स्नानागार के बाहर अपने दक्षिण चरण के पंक से उत्पन्न एक बालक को द्वारपाल के रूप में नियुक्त कर दिया और उससे कहा कि "जब तक मैं स्नान पूरा न कर लूं, तब तक किसी भी पुरू ष को भीतर न आने देना।" पर स्नान करके जब महादेव पधारे तो उस शक्तिसंपन्न बालक ने महादेव को रोक लिया। लंबे वाणी-विवाद के बाद कुपित होकर महादेव ने अपने तीखे त्रिशूल से उस निरपराध बालक का मस्तक उसके शरीर से अलग कर दिया। जब जगदंबा माता गौरी को यह मालूम हुआ, तो पार्वती ने महादेव को उस बालक को पुनर्जीवित करने की बार-बार विनती की। तब भगवान नारायण के आदेशानुसार कुछ समय पहले ही जन्मे हुए एक हाथी के बच्चे का मस्तक उस बालक के सिर पर रखा गया और वह बालक "गजवदन" कहलाया। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उस महाशक्तिशाली गजवदन बालक को अपने समस्त गणों का अधिपति-राजा बना दिया। तब से ये गजवदन "गणेश आज्ञक्र गणपति" कहलाने लगे। उस सभा मंडप में उपस्थित देवराज इंद्र आदि देवताओं ने गणपति को सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्ण, लंबोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र और गजानन इत्यादि बारह नामों से विभूषित किया। सूक्ष्म दृष्टि से संपन्न होने के कारण ही गणपति को प्रथम पूजा ग्रहण करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसी कारण कुशाग्र बुद्धि से गणपति ने सारी पृथ्वी के परिक्रमा लगाने की जगह सिर्फ अपने माता-पिता के ही सात परिक्रमा लगाई थी। कुछ पुराणों में लिखा है कि गणपति ने धरती पर "राम" लिखकर उस अलौकिक नाम की चार प्रदक्षिणा की थी। बस, तभी से दिव्य बुद्धि से युक्त होने के नाते महादेव के आशीर्वाद से भगवान् गणपति प्रथम पूज्य हो गए। गोस्वामी तुलसीदास ने "रामचरितमानस" में समस्त वर्णो, अर्थो, रसों तथा छंदों और मंगल इत्यादि सद्गुणों का स्वामी तो भगवान गणपति को माना ही है, साथ में मुक्तिदायिनी रामभक्ति का प्रदाता भी माना है।
चतुर्थी तिथि के स्वामी
ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक तिथि किसी न किसी देवता की स्मारक तिथि होती है, ठीक वैसे ही जैसे प्रत्येक वार एक विशिष्ट ग्रह का परिचायक होता है। गणपति का प्राकटय भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को ही होता है, इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि चतुर्थी तिथि के स्वामी स्वयं गणपति हैं। इसीलिए पूरे बारह महीनों में ही प्रत्येक चतुर्थी को "गणेश चतुर्थी" कहा जाता है। ऋद्धि-सिद्धि उनकी पत्नियां और शुभ-लाभ जिनके पुत्र हों, वे गणपति ही मानव मात्र को कामना पूर्ति का सुंदर आशीर्वाद दे सकते हैं। श्री, वर्चस्व, आयुष्य, निरोगता, धन, धान्य, बुद्धि, संतान और कृçष्ा इत्यादि सभी पदार्थ गणपति सहज ही प्रदान कर देते हैं। समृद्धि, ऋद्धि, शुभ और लाभ जिनके चरण सेवक हैं, वे गणपति ही प्राणी मात्र को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देने के लिए गणेश चतुर्थी को मध्याह्न में जन्म ले रहे हैं। आओ, हाथ में जल, गंध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा और मोदक लेकर गणपति का अभिनंदन करें और दीपों से सजी आरती की थालियों से गौरीसुत गणनाथ लंबोदर का मंगल स्तवन करें।
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